Friday 6 February 2015

Side Effects of Secularism on Indian Politics & Mindsets





          चुनावों के माहौल में सभी वोट-लोलुपों ने ‘सेक्यूलरवाद’ के शब्द के सुर अलापना आरम्भ कर दिया है, जिन सत्ता-पिपासुओं ने भ्रष्टाचार मिटाने का ढिंढोरा पीटकर राजनीती में कदम रखा वो भी अब सलीमशाही-पोपशाही जूतियाँ चाटकर अब भ्रष्टाचार को भूलकर सेक्यूलरवाद के पीछे भाग रहे हैं ।  उनका मानना है कि भारत को लूट-लूट कर कंगाल कर देने के उपरान्त भी यदि भ्रष्टाचारी जीत जाएँ तो कोई बात नही परन्तु हम तो सेक्यूलर हैं… इस हेतु हम किसी साम्प्रदायिक व्यक्ति को नही जीतने देंगे ।

          अब यदि आप इनमे से किसी से भी पूछें कि सेक्यूलर का अर्थ क्या है तो सब अपनी अपनी ढपली बजाकर अपना एक विचित्र सा ही राग अलापना आरम्भ कर देंगे ।  इसका एक कारण यह है कि सेक्यूलर शब्द हमारी भाषा का नही अत: उसकी संकल्पना भी हमे स्पष्ट नही हो पाती । Secular शब्द उन्ही लोगों की देन है जिन लोगों ने भारत का नाम INDIA रखा है जिसका अर्थ ‘I Proud to Be an Indian’ कहने वाली प्रजाति भी उचित रूप  में नही जानती ।

          यहाँ मैं उल्लेख करना चाहूँगा कि आपके घर में यदि कोई पुरानी Oxford Dictionary उपलब्ध हो तो उसमे देखें Indian का अर्थ आपको ‘चोर, दस्यु, काला’ आदि के रूप में अवश्य मिलेगा … एक अर्थ तो यह भी है कि जिसका  विवाह ईसाई रीति रिवाज़ से नही हुआ हो वह Indian होता है ।  Internet पर उपलब्ध Oxford Dictionary की websites पर अब सब कुछ बदल दिया गया है ।

          Secular शब्द हमने अंग्रेजी से पाया, वैसे Secular शब्द का प्रयोग अर्थशास्त्र और खगोल विज्ञान में भी होता है और उन सन्दर्भों में इसके अर्थ भिन्न भिन्न होते हैं,  परन्तु जब धर्म/सम्प्रदाय का सन्दर्भ आता है तो इसका प्रयोग पहली बार  19वीं शताब्दी में यूरोप में किया गया ।  यूरोपीय समाज की एक विशेषता यह रही है कि वहाँ एक समय में एक ही विचार ‘प्रधान’ रहा है… और यह जड़ता वादी विचार प्रधानता 19वीं शताब्दी तक तो हावी ही रही… जबकि हमारी सनातन वैदिक कालीन परम्परा  ‘विचार-स्वातन्त्र्य’ की रही है ।

          ‘वादे वादे जायते तत्व बोध’ पर हमारा सदैव विश्वास रहा है, इसी हेतु सत्य की खोज हेतु चर्चा, परिचर्चा, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ जैसी परम्पराएं प्रचलित हुईं।  इसी का परिणाम था कि हमने कि जिन वेदों को हमारे यहाँ ‘आगम-प्रमाण’ / ‘परम-प्रमाण’ / ‘स्वत: प्रमाण’ माना गया, ‘वेद-वाक्य’ शब्द जिनकी प्रमाणिकता का पर्याय बन गया…उन्हीं वेदों और अनेक वैदिक मान्यताओं का खंडन और आलोचना करने वाले वर्धमान महावीर,गौतम बुद्ध और नानक तक को भी समाज ने सम्मान दिया ।  कुछ लोगों ने तो उन्हें भगवान और भगवान का अवतार तक घोषित कर दिया… निकट भविष्य में और भी कुछ नये अवतारों से साक्षात्कार हो सकता है, एतिहासिक दृष्टि से यह ईसा से लगभग 500 वर्ष से पूर्व की बातें हैं, अभी भी चली आ रही हैं ।

          बात करें यूरोप की तो यूरोप में उस समय ‘विचार-स्वातन्त्र्य’ की क्या स्थिति थी ?  उपरोक्त प्रश्न का उत्तर इस तथ्य से स्पष्ट किया जा सकता है कि यूरोप में तब मनुष्य को विवेकशील बनाने के लिए उत्सुक, तर्क पर बल देने वाले, स्वतंत्र विचारों के पोषक और महान दार्शनिक सुकरात को (ईसा पूर्व 469-399) ईशनिंदा करने और युवाओं को पथभ्रष्ट करने का आरोप लगा कर मृत्यु दंड दिया गया… सुकरात पर समलेंगिक होने के भी आरोप लगाये गये ।

          अनेक विद्वान यह भी मानते हैं कि ईसा मसीह भी शिक्षा प्राप्त करने हेतु भारत आये थे… भारत में ईसा मसीह को वैदिक धर्म और अन्य वेद विरोधी सम्प्रदायों जैसे बोद्ध, जैन, आजीविक, सर्व-संशयवादी आदि की शिक्षाएं आदि प्राप्त कीं ।  वापिस जाकर ईसा मसीह ने जो भी शिक्षाएं दीं परन्तु उसके अनुयायी तो यूरोप के ही निवासी थे … अत: इसाई पन्थ का प्रसार होने पर वही ‘विचार-प्रधानता’ हावी रही जिससे व्यवहार में कट्टरता और असहनशीलता बनी रही ।  और ईसा मसीह की मृत्यु के लगभग 1700 वर्ष तक भी यह कट्टरता और असहनशीलता इतनी हावी रही कि यदि कोई व्यक्ति चर्च या पैशाचिक ग्रन्थ बाइबल की किसी भी मान्यता के विरुद्ध कुछ कहता था तो उसे कठोर दंड दिया जाता था ।

          एक बार पुन: यदि भारत के इतिहास का विश्लेष्ण करें तो जब यहाँ इस्लामिक आक्रमणों और बर्बरता से वैदिक धर्म जूझ रहा था … तब उस समय यूरोप ‘इन्क्विजिशन’ नामक बीमारी से तंग अंधी गलियों में जूझ रहा था ।

          ‘इन्क्विजिशन’ अर्थात तथाकथित धर्म-परीक्षण की इस बीमारी से यूरोपीय जन मानस इतना प्रभावित था कि कोपरनिकस, व्रुनो और गैलिलियो जैसे वैज्ञानिकों की बली ले ली । जबकि बात केवल इतनी सी ही थी कि चाँद-सूरज, ग्रह-नक्षत्र आदि के बारे में बाईबल में बताई गई बातों से यह विद्वान सहमत नही थे ।  कोपरनिकस को 16वीं शताब्दी में बहुत ही प्रताड़ित और अपमानित किया गया और उसकी मृत्यु के उपरांत उसकी पुस्तकें भी प्रतिबंधित कर दी गईं ।

          व्रुनो नामक वैज्ञानिक को तो 16वीं शताब्दी में रूई में लपेट कर जीवित ही भस्म कर दिया गया ।  गैलिलियो को 17वीं शताब्दी में नजरबंद ही कर दिया गया ।  आखिर … क्यों ? केवल विचार-प्रधानता की महा-मारी के कारण ।

          इन्क्विजिशन की महामारी से ग्रसित जो लोग अपने से भिन्न मत रखने वालों की हत्या के फतवे जारी करते हैं… उन कट्टरपंथियों की तो बात ही अलग है परन्तु आश्चर्य तब होता है जब अन्य लोग भी Secularism की संकल्पना से सहमत होते हैं ।

          भारतीय जन मानस की कठिनाई मात्र यही है कि हमने Secularism नामक शब्द को उधार ले लिया और अब इसका ब्याज ढोए जा रहे हैं ।  यही कारण है कि आज भी हमारे यहाँ Secular के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग अर्थ हैं … जैसे शासन के सन्दर्भ में जो आधारभूत शर्त है वो यह है कि धर्म/पन्थ के आधार पर भेदभाव न करना … परन्तु अपने को Secular कहने वाले लोग सबसे पहले उसी पर आघात करते हैं ।

          यह तथाकथित Secular (Pseudo-Secular) पहले तो पन्थ के आधार पर बांटते हैं तदुपरांत प्रत्येक पन्थ के लिए अलग-अलग नियम कानून बनाते हैं ।  यही कारण है कि जब भी समान नागरिक संहिता संबंधी कानून को लागू करने की बात उठती है तो उसका सबसे अधिक विरोध वे लोग करते हैं जो अपने आपको ‘Secular’ का महान झंडा-बरदार बताते नही थकते ।

          Secularism की मनमानी परिभाषा का ही यह परिणाम है कि सरकार के व्यवहार में समानता गायब है ।

          अधिक दूर न जाकर यदि निकटतम सन्दर्भों का ही विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म-निरपेक्षता की आड़ में सर्व-धर्म सामान की बात कहने वाला समाज और इसके ठेकेदार स्वयं कई हिस्सों में विभाजित हो गये जब तथाकथित धर्म-निरपेक्षता को पैरों तले रौंदते हुए एक फिल्म आई जिसमे एक ही धर्म विशेष के ऊपर साप्रदायिक हमले और टिप्पणियाँ करके प्रदूषित संदेश दिए गये l कभी भीष्म साहनी द्वारा बनाए गये भारत विभाजन पर एक धारावाहिक ‘तमस’ को प्रतिबंधित किया जाता है, क्या वो धर्म निरपेक्षता पर खतरा थी ?

अभी लगभग 2 वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी ‘विश्वरूपम’ जिस पर एक शांतिदूत समुदाय विशेष ने बहुत छाती पीटी तथा तमिलनाडू राज्य सरकार प्रतिबंधित करने को तैयार हुई, उत्तर प्रदेश में प्रतिबंधित करने का निर्णय लेने की भी बात हुई, इतना ही नही अभिनेता कमल हासन से सार्वजनिक रूप से क्षमा याचना भी प्रस्तुत करवाई गई l फिर कर्नाटक राज्य ने 2014 में ही एक फिल्म ‘शिवा’ के भी कई सीन काट दिए गये l

          उसके बाद पंजाब सरकार ने भी अपना कार्य किया और एक स्वयंभू गुरु और भगवान द्वारा स्वयं को महामानव दिखा कर चमत्कार बनाई गई फिल्म को भी प्रतिबंधित किया गया l

          परन्तु एक भी राज्य सरकार ने इस देश में सबसे अधिक जनसंख्या की धार्मिक भावनाओं के प्रति उदासीनता प्रकट करके उनकी धार्मिक भावनाओं का जो राजनितिक एवं संवेधानिक बलात्कार किया उसकी आलोचना तथा उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया सडकों पर कई धार्मिक लोगों द्वारा की गई परन्तु न तो सुप्रीम कोर्ट और न ही कोई प्रदेश कोर्ट और न ही राज्य सरकार भारत देश के 80 करोड़ हिन्दुओं की धार्मिक आस्था के कपड़े तार तार होने से नही बचा पाई l

          इस सन्दर्भ में न्यायालय तथा न्यायाधीशों का जो पक्ष रहा और तटस्थता तथा निष्पक्षता का जो उदाहरण सामने आया वह भी चिंता का विषय है और बहुत से प्रश्न खड़े करता है, क्या न्यायलय तथा न्यायाधीश संवेदनहीं हैं ? या वे धर्म-निरपेक्षता के दायरे में केवल बहुसंख्यक वर्ग को ही रखने की भूल कर रहे हैं ?  जो भी हो परन्तु यह पूरा प्रकरण यह शंका उत्पन्न अवश्य करता है कि न्यायालय और न्यायाधीशों की धर्म-निरपेक्षता की शिक्षा-समझ मेल नही खाती परस्पर संविधान और संवेधानिक आदेशों के साथ l

         सुप्रीम कोर्ट में आमिर खान की विवादित हिन्दू विरोधी PK फिल्म के पोस्टर के विरोध में जब एक याचिका डाली गई तो मीडिया चेनलों और समाचार पत्रों ने कुछ इस प्रकार प्रकाशित किया “If You Do not like, Do Not Watch”… सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कुछ इस प्रकार दिखाया गया, परन्तु यह पक्ष भी या तो न्यायालय या मीडिया दोनों की और संदेह के प्रश्न खड़े करता है ?

यह किस प्रकार संवेधानिक, तर्कसंगत या व्यवहारिक हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कहें कि “चोरी हो रही है, आपको पसंद नही है तो मत देखिये”, “हत्या हो रही है आपको पसंद नही है तो मत देखिये”
“बलात्कार हो रहा है आपको पसंद नही है तो मत देखिये”,


… मेरे पास हालांकि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की अभी तक कोई छायाप्रति नही है, जिसमे मैं पुख्ता रूप से कह सकूं कि न्यायलय द्वारा ऐसा कहा गया है कि नही, हो सकता है कि यह न्यायाधीशों का In House Comment हो, परन्तु फिर भी क्या यह मीडिया की अपरिपक्वता या बिकाऊ होने के सटीक प्रमाण इसी में प्राप्त हो जाते हैं कि वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश और टिप्पणी में अंतर को भी स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं कर पाते या करना नही चाहते या ऐसा न करने के लिए निर्देशित किया गया हो ?

         भारतीय मीडिया का नकारात्मक पक्ष तो पूरे विश्व में कुख्यात है जहां एक पत्रकार देश के प्रधानमन्त्री को अपमानित करने हेतु विदेश पहुँच कर अपनी महत्वाकांक्षाओं की कुंठा निकालते हुए अपने मालिकों को प्रसन्न करने का हर संभव प्रयास करता है l

          भारतीय मीडिया का यदि पिछले 15 वर्षों का अध्ययन करें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत में सबसे अधिक सांप्रदायिक मानसिकता इसी क्षेत्र में है, फिर चाहे वो प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया, विभिन्न मुद्दों को जोड़ तोड़ कर भगबान श्री राम, या शिव आदि सनातन धर्म के देवी देवताओं का अपमान करने को सदैव तत्पर रहते हैं ये, जबकि 15 वर्षों पर नकली बाबाओं से अपना चैनल चलाने हेतु यही चैनल उनका प्रचार प्रसार करने में व्यस्त रहे परन्तु अन्य सम्प्रदाय विशेष के विरुद्ध कुछ लेश मात्र भी करने का न ही उनमे सामर्थ्य है और न ही मानसिकता l

          मेरे शब्दों की प्रमाणिकता तब अधिक सटीक हो जाती है जब फ़्रांस में पत्रकारों के एक कार्यालय पर दिन दहाड़े आतंकी हमला किया गया और 12 लोगों को मार दिया गया, उसके बाद कुछ लोगों का अपहरण भी होता है, पूरा विश्व देखता है यह सब परन्तु भारत का मीडिया उस सम्प्रदाय विशेष के विरुद्ध छापे गए कार्टूनों में से एक भी कार्टून अपने चैनल पर दिखाने का पुरुषार्थ न दिखा सका, उन्हें या तो मौत का भय था या फिर राष्ट्र-चरित्र बेच कर आयात होने वाली राष्ट्रद्रोही रिश्वत के रुक जाने का l

यहाँ यह उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है कि फिल्में One Way Communication की प्रक्रिया पर चलती हैं, ऐसा नही है कि प्रत्येक सीन के बाद फिल्म को रोका जायेगा और उसका तुलनात्मक विश्लेष्ण हो सके, पूरी फिल्म निरंतर चलती है और उसके सकारात्मक तथा नकारात्मक संदेश समाज को प्रेरित और प्रदूषित करने का कार्य कर जाते हैं l

          सर्वधर्म समान कह कर अपनी ही संस्कृति का गला घोंटने के अपराध से उन सज्जनों को ये लेख बचाएगा आप स्वयं पढ़ें और औरों तक यह पहुँचाने की पावन सेवा करें l

          समय के साथ अनेक परिवर्तन होते हैं, पोशाकों में बदलाव आया, घरों की रचना, रहन-सहन में बदलाव आया, खानपान के तरीके भी बदले…..परन्तु जीवन मूल्य तथा आदर्श जब तक कायम रहेंगे तब तक संस्कृति भी कायम कहेगी l

यही संस्कृति राष्ट्रीयता का आधार होती है l
राष्ट्रीयता का पोषण यानि संस्कृति का पोषण होता है… इसे ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जाता है l


अंत में यह भी समझ लीजिये कि राष्ट्रवाद की भी बहुत सारी Layers हैं...

केवल राष्ट्रवाद...
हिन्दू राष्ट्रवाद...

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद... 
धार्मिक राष्ट्रवाद...
अध्यात्मिक राष्ट्रवाद... 

स्वदेशी राष्ट्रवाद आदि...  

इन समस्त राष्ट्रवाद के इतिहास तथा विचारधारा को भली भाँती समझ कर तथा इन सभी के अंतर को समझ कर ही इस युद्ध में विजयी हुआ जा सकता है, अन्यथा नही l




          सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी… जो सदैव संघर्ष संघर्षरत रहेंगे… जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे, और न ही अपने राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा ही कर पाएंगे l



जय श्री राम कृष्ण परशुराम

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