Wednesday 18 December 2013

Misuse of Diplomats & Chessmen like Devyani for Image Cleaning Politics

Article Published in 2 Languages - English & Hindi

Devyani and Her Family- Becoming a Victim of Politicization of Big Issues.

I am surprised by the maelstrom over the arrest and harassment of Indian Deputy general consul and the tough stance taken by the Indian government over this matter. It’s important to note that New Delhi did not retaliate in such an aggressive manner even in 1971 Indo-Pak war, when Washington deployed its combat ships near the Indian borders.

This strong reaction by the Indian govt. is certainly applaud-able, according to me, this reaction raises many questions, as taught by our great Ancient Ethicist and Politician Chanakya:

'' Extra Formality Must Be Seen With Suspicion."

'' The Wicked Use Their Intellect for Committing Sins Only."

Even though every proud Indian must be happy with the stand taken by the govt. on this matter, however, nobody would have expected the govt. to react in this Macho manner,

Because in the last 10 years Indian government has only disappointed the public sentiment, regardless of the issue.

The uncivilized and indecent behavior done to Indian diplomat Devyani khobragde by the united states, it raises many questions, such as :
1. Is u.s.a unaware of the courtesy protocol for foreign diplomats?
2. Is u.s.a least bothered about getting its image polluted?
3. Why would a country like u.s.a behave in such fashion?
4. Was u.s.a not aware about the gravity of this matter ( harassing a foreign diplomat)?
5. Did u.s.a not analyzed the opposition over this matter by other countries?
6. How can u.s.a make such a mistake in Diplomats related affairs ?

If we are to contemplate over the questions raised by the above suspicions, what illuminates in mind is how big leaders use- misuse their pawns to create issues and manipulate them for self image cleaning. Some issues are even crafted and imposed to distract the public from hot news topics that can hamper their image.

So, was it done at the directions given by the congress, to its corporate buddy united states, to improve the image of government in the India? Weak leadership and political failures had thrown the Congress the back foot due to which congress was in need of some issues and controversies which can help improve the image of present government in the minds of Indian public.

That image, which has maligned due to rampant corruption, inflation and congress politicians who are  always surrounded by allegations and also due to loosing in recent provincial elections. This image was further contaminated by congress politicians and its allies who did sharp commentaries about the poor policies of Congress.

In the past 10 years, the kind of strategies that were used by Indian government, in cases of harassment of Indian civilians, merchants and soldiers by china, Pakistan, Italy, Sri Lanka, Bangladesh and other countries, were very weak and lame in contrast to how it reacted against America in the case of Devyani.

Specially, Somalian pirates continue to loot our merchants and ships; however, New Delhi hardly showed any interest. In u.s and China, some Indian civilians and merchants were trapped in fake cases, When government was asked for help, it did nothing but offered a canful of false promises.

After a thorough contemplation of these issues, it concludes that when officers and pawns are manipulated for the bigger benefits of their lords (Read politicians) what kind of grave effects it has on the life of those pawns and their families? In that phase of troubles and strong criticism, how many people support or make distance with them?

Indian Deputy General Consul Devyani khobragde is a daughter of a former I.A.S. officer, While studying for exams of administrative and foreign services, Devyani would have never thought about such a misery to ever happen with her, especially when she was posted in U.S, at such an esteemed designation.

However, still this Indian diplomat was misused as a pawn, after which the kind of insult she had to suffer on a global level, for that, even if American and Indian governments ask for apologies in writing, it will never be able to repay the grave physical and mental torture that Devyani had to go through.

The way Devyani was handcuffed and arrested in front of her daughter’s school and then her daughter and house maid were also arrested, most indecent, uncivilized and undignified behavior that can’t be properly explained in words, is when she was made to be naked for frisking, after which she was kept in the lock up of males, most of whom were in lock up due to drug abuse, is absolutely against the protocol for a foreign diplomat.

Whatever your reactions may be after reading this article, however, my conclusion is Devyani is trapped at the directions of Indian government, for using it as a medium to white wash its ever deteriorating image, for the May 2014 elections.




बड़े मुद्दों की राजनीती में देवयानी जैसे पिसते अफसर और उनका परिवार 
l

अमेरिका में नियुक्त भारतीय उप महावाणिज्य दूत देवयानी खोब्रागड़े की गिरफ्तारी और बदसलूकी से उठे विवाद के बाद भारत सरकार द्वारा जो ठोस एवं तीखी प्रतिक्रिया की गई उससे मैं आश्चर्यचकित हूँ, इस प्रकार की कड़ी प्रतिक्रिया तो भारत ने 1971 में भारत – पाकिस्तान युद्ध के समय तब भी नहीं की थी जब अमेरिका ने भारतीय सीमा के पास तक अपने जंगी बड़ों की तैनाती कर दी थी l


भारत सरकार की यह ठोस और कड़ी प्रतिक्रिया निश्चित ही प्रशंसनीय है मेरे अनुसार यह प्रतिक्रिया ऐसे बहुत से प्रश्न भी खड़े करती है, जैसा कि महान नीतिकार चाणक्य ने भी कई शिक्षाएं हमें दी हैं:-

“अधिक औपचारिकता में शंका करनी चाहिए - Extra Formality Must Be Seen With Suspicion."
“नीच व्यक्ति बुद्धि का प्रयोग भी पापकर्मों के लिए ही करते हैं - The Wicked Use Their Intellect for Committing Sins Only."

अमेरिका द्वारा भारतीय दूत के साथ बदसलूकी की गई उसकी जो प्रतिक्रिया भारत सरकार द्वारा की गई वो निश्चित ही प्रशंसनीय है, परन्तु इस प्रकार की प्रतिक्रिया की अपेक्षा समस्त भारत में संभवत: किसी भी भारतीय ने नही की होगी, क्यूंकि पिछले 10 वर्षों की भारत सरकार ने लगभग लगभग सभी मामलों में भारतीय जन-भावनाओं को निराश ही किया है, चाहे वह कोई भी विषय क्यों न रहा हो l

भारतीय दूत देवयानी खोब्रागड़े के साथ अमेरिका द्वारा जो भी अमर्यादित और असभ्य व्यवहार किया गया उससे निश्चित ही कई प्रकार के प्रश्न खड़े होते हैं :-
1         क्या अमेरिका दूतों के साथ होने वाले शिष्टाचार की नीतियों से परिचित नहीं हैं ?
2         क्या अमेरिका को अपनी छवि के दूषित होने का कोई भी नहीं ?
3         क्या अमेरिका ने विश्व के अन्य देशों द्वारा होने वाले विरोध का आकलन नहीं किया ?
4         आखिर अमेरिका जैसा देश इस प्रकार का व्यवहार क्यों करेगा ?  
5         क्या अमेरिका को इस मामले कि गंभीरता का अनुमान नहीं था ? 
6         आखिर अमेरिका इस प्रकार की राजनयिक मामलों की भूल कैसे कर सकता है ? 

यदि उपरोक्त शंकाओं से उत्पन्न प्रश्नों पर विचार किया जाए तो निश्चित ही यह ज्ञात होगा कि बड़े नेताओं द्वारा किस प्रकार अपने मोहरों का उपयोग-दुरूपयोग विवादों को जन्म देने और उन विवादों से छवि सुधारने के कार्यों हेतु किया जाता है ? कुछ विवाद ऐसे भी उत्पन्न किये जाते रहे हैं जिनसे कि पूर्व में चल रहे गर्मागर्म विवादों से जनता का ध्यान हट रहा l

क्या कांग्रेस के इशारे पर इस प्रकार का कार्य अमेरिका द्वारा किया गया जिससे कि कांग्रेस को अपनी छवि बदलने का अवसर प्राप्त हो सके l कमजोर नेतृत्व और राजनैतिक विफलताओं ने कांग्रेस को कई मामलों पर बैकफुट पर धकेल दिया था जिसे लेकर कांग्रेस को कुछ ऐसे मुद्दों और विवादों की आवश्यकता उत्पन्न हुई कि जिससे भारतीय जनता में कांग्रेस और भारत सरकार की छवि बदलने का प्रयास किया जा सके l  
वो छवि जो लगातार भ्रष्टाचार, महंगाई, वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के आरोपों में घिरे रहने के बाद कई राज्यों में चुनाव हारे जाने के बाद और भी ख़राब हुई है, उस छवि को और भी विद्रूप उन तीव्र और तीखी आलोचनाओं ने भी किया जो कि स्वयं कांग्रेसी नेताओं और सहयोगी दलों के नेताओं द्वारा की गईं थीं कांग्रेसी नीतियों के बारे में l 

पिछले 10 वर्षों में भारत सरकार द्वारा पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, श्री लंका, इटली आदि देशों द्वारा भारतीय नागरिकों और सैनिकों के साथ जिस प्रकार के हथकंडे अपनाए गए, उनको लेकर जिस प्रकार की नीति भारत सरकार ने अपनाई वो अमेरिका के प्रति अपनाई गई प्रतिक्रियाओं से कहीं निम्न स्तर की प्रतिक्रियाएं थीं l विशेषकर सोमालियाई लुटेरों द्वारा जो भारतीय नागरिकों और जहाजों का अपहरण किया जाता रहा उसके प्रति भी भारत सरकार की नीति सदैव निराशाजनक ही रही l अमेरिका, चीन आदि देशों में कुछ भारतियों नागरिकों और छोटे उद्योगपतियों को भी झूठे मुकद्दमों में फंसाया गया, इन मुकद्दमों में जब भारत सरकार से सहायता मांगी गई तो भारत सरकार न सदैव कंधे उठा कर निराश करने या झूठे आश्वासन देने के सिवाय और कुछ न किया l

सभी बातों पर गंभीरता से विचार करने के बाद यह निष्कर्ष भी निकलता है कि छोटे अफसरों या मोहरों को जब अपने हित साधने हेतु उनका दुरूपयोग किया जाता है तो उन मोहरों के जीवन और उनसे सम्बन्धित उनके परिवार, रिश्तेदार और अन्य सम्बन्धित लोगों के जीवन पर क्या क्या असर पड़ता है ? विपत्तियों और आलोचनाओं के उस बुरे दौर में कितने लोग उनके साथ जुड़ते हैं, कितने लोग उनसे दूरी बना लेते हैं ?


भारतीय उप महावाणिज्य दूत देवयानी खोब्रागड़े एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी की ही सुपुत्री हैं, प्रशासनिक एवं विदेश सेवाओं की परीक्षाओं हेतु पढाई करते हुए संभव ही कभी देवयानी ने सोचा होगा कि उसके साथ कभी ऐसा भी हो सकता है, विशेषत: जब वो अमेरिका में एक इतने बड़े पद पर कार्यरत हो चुकी थीं l
परन्तु उसके बाद भी जब भारतीय दूत देवयानी को मोहरे की भांति दुरूपयोग किया गया उसके बाद वैश्विक स्तर पर जो अपमान देवयानी का हुआ है उसके लिए भले ही भारत और अमेरिका की सरकारें लिखित में भी क्षमा मांग लें परन्तु देवयानी का जो शारीरिक अपमान हुआ उसकी भरपाई किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया या लिखित क्षमा-याचना नहीं कर सकती l
जिस प्रकार से देवयानी को उसकी सुपुत्री के विद्यालय के बाहर से हथकड़ी लगा कर गिरफ्तार किया गया, उसके बाद उसकी बेटी और नौकरानी को भी गिरफ्तार किया गया l सबसे अभद्र, असभ्य, अमर्यादित व्यवहार तो किसी भी रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता जिसमे देवयानी को निर्वस्त्र करके उसकी तलाशी लेने का प्रकरण सामने आता है और उसके बाद उसे दूत की मर्यादा के विरुद्ध पुरुषों के लॉक-उप में रखा जाता है जिसमे अधिकतर नशाखोरी में गिरफ्तार थे l

यह लेख पढने के बाद आप सबकी जो भी प्रतिक्रिया हो परन्तु मेरा निष्कर्ष यही है कि देवयानी को भारत सरकार के इशारे पर ही फंसाया गया है, जिसके माध्यम से भारत सरकार अपनी छवि को साफ़ सुथरी बना सके, मई 2014 में होने वाले चुनावों की तैयारी हेतु l




Thursday 12 December 2013

The War has been Intellectual


आज घोड़े पर चढ़कर कोई तलवार आपकी गर्दन पर लगा कर हिन्दुओं का धर्मांतरण नहीं करवा रहा, लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता की आड़ में सैकड़ों प्रकार के प्रपंच आज धर्मांतरण हेतु प्रयोग किये किये जा रहे हैं, जिन्हें हिन्दुओं का अधिकाँश वर्ग समझ नहीं पा रहा l

और जो समझ भी पा रहे हैं उनमें भी अधिकाँश वर्ग ऐसा है जो समझता सब कुछ है परन्तु कर कुछ नहीं प् रहा l

वर्तमान में स्थिति ऐसी हो चुकी है कि अधिकाँश हिन्दुओं को टेलीविजन, रेडिओ, फिल्मो के माध्यम से उल्टी सीधी बातें, किस्से, डायलाग आदि  सुना सुना कर उन्हें हिन्दू धर्म के विरुद्ध करने का प्रयास किया जाता है और वो दुनिया का सबसे Soft Target बनता है, क्यूंकि उसके पास न तो अपनी धार्मिक मान्यताओं का उपहास उड़ाने वालों के लिए कोई उत्तर है न ही तोड़...

ऐसे हिन्दू अपने धर्म, संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं का उपहास उड़ते हुए देखते हैं... परन्तु कर कुछ नहीं पाते, ये उपहास उड़ाने वालों को उचित Reply ही नहीं दे पाते, Counter करना तो बहुत दूर की बात है ... Because... The War has been Intellectual

मेरी इस पोस्ट से कोई यह निष्कर्ष न निकाल बैठे कि मैं भक्ति उपासकों या भक्ति सम्प्रदायों का निंदक या आलोचक हो गया हूँ, ऐसा नहीं है, यह स्पष्टीकरण इसलिए आवश्यक है कि FaceBook पर कई लोग ऐसे भी होते हैं जिनका मूल स्वभाव आज भी Orkut के चिरकुट वाला ही रहता है, बिना सोचे समझे Comment करना उनका स्वभाव बन चुका है, ऐसे लोग कृपया इस Post से दूर रहें, यदि कुछ समझ में आये तो अपने सुझाव दें, अन्यथा उचित दूरी बनाए रखें आपकी अति कृपा होगी l

भक्ति काल ने सनातन धर्म को इस्लामिक आक्रमणों के कारण हो रही हानियों से बचाने हेतु एक प्रकार से संजीवनी का कार्य किया, जो कि सराहनीय था, है और रहेगा l
वर्तमान शिक्षा पद्धति में धर्म, अध्यात्म आदि की शिक्षा किसी विद्यालय में तो मिलती नहीं, अपितु थोड़ी बहुत शिक्षा जो घर पर या मन्दिर में मिलती है वो भक्ति की और ही प्रेरित कर देती है, परन्तु यदि अब क्या सारा जीवन भक्ति भक्ति भक्ति ... और केवल भक्ति ?

ये तो कुछ ऐसा हुआ मानो... आपने 10वीं कक्षा पास कर ली है, परन्तु फिर भी हर साल 10वीं की ही पुस्तकें पढ़ रहे हो, और 10वीं की ही परीक्षा की तैयारी हो रही हो ... यह कब तक चलेगा l
वैसे तो आजकल के पढ़े लिखे SICKULAR लोग धर्म को एक फालतू की चीज समझते हैं, और जो लोग धर्म को अपने जीवन में महत्व देते भी हैं वे मन्दिर जाकर आरती और कीर्तन करने को ही धर्म समझ लेने की गलती करते रहते हैं, परमात्मा को प्रेम करना कोई बुरी बात नहीं होती, पर केवल भजन कीर्तन को ही धर्म समझ लेना गीता का अपमान स्वरूप है,

वेदों में तथा गीता में मुक्ति के तीन मार्ग बतलाये गए हैं...
१. ज्ञान मार्ग ... २. कर्म मार्ग ... ३. उपासना मार्ग ...

क्यों हमारे धार्मिक लोग केवल कीर्तन की ढोलकी बजाने को ही धर्म समझ लेते हैं, क्या उनको जाकिर नाईक जैसे लोग दिखाई नही देते, जाकिर नाईक ने अपने Pisslam के पैशाचिक ग्रन्थ पढ़े हैं और साथ ही उसने वैदिक ग्रन्थों का भी अध्ययन किया है पर यह और बात है कि जिसकी सनातन धर्म में आस्था ही न हो वो वेदों का अध्ययन कर भी लेगा तो उनकी व्याख्या तो मैक्स-मुलेर के रूप में ही करेगा... नास्तिक व्यक्ति या फिर वेदों में आस्था न रखने वाले व्यक्ति यदि वेदों का अध्ययन कर भी लेंगे तो वे अर्थ का अनर्थ ही करेंगे ...
और जाकिर नाईक अकेला नहीं है, मैक्स मुलर ने भी वेदों का अध्ययन किया और सत्यानाश किया, अर्थ का अनर्थ किया, आप सब लोग ठंडे दिमाग से सोचिये, क्या जाकिर नाईक और मैक्स मुलर जैसे लोगों को उत्तर देने के लायक बना जा सकता है .... कीर्तन आदि करके या ढोलकी आदि बजा कर के ...???

आखिर क्यों धार्मिक लोग शास्त्र-अध्ययन नहीं करते, धार्मिक लोग ही नही करेंगे तो फिर कौन करेगा ...??

यही समस्या है... और इस समस्या को जाकिर नाईक तथा फादर डोमिनिक जैसे लोग भली भांति पहचानते हैं ... कि हिन्दू या तो सो रहा है.... और जो जाग रहा है वो बस ढोलकी बजा रहा है, या कीर्तन आदि कर रहा है ....
उनके ग्रन्थों का सत्यानाश करने का अच्छा अवसर है ...?

फिर तैरा कर दिखाओ पानी में लकड़ी का क्रास ... और सूरत के प्लेग के रोगियों को पिलाओ दवाई वाला पानी .. Holy-Water कह कर... और करो धर्मांतरण ... क्योंकि उनके कुतर्कों का उत्तर देने हेतु तो कोई आपको प्रशिक्षित करने वाला है नहीं ... न ही आपको कोई सिखाने वाला है कि उचित मार्ग क्या है .... ??

भक्ति काल एक प्रकार का आपातकाल था जो कि अब गुजर चुका है, अब पुन: वापिस अपने ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग की और लौटने की है ... परन्तु पूरे विश्व को केवल भक्ति भक्ति की और ही प्रेरित करते रहना क्या यह मुर्खता की पराकाष्ठा जैसी प्रतीत नही होती l

एक वो समय था जब आक्रमणकारी घोड़ों पर बैठ कर आते थे और सनातन धर्म को भांति भांति प्रकार से हानियाँ पहुंचाने के प्रयास करते रहते थे, उस समय ज्ञान, पराक्रम, भक्ति, सहनशीलता, कूटनीति के तहत जितना जितना जिसका सामर्थ्य हुआ ...उसने वो बचा लिया l

आज के समय में युद्ध बोद्धिक हो चुका है, अवैदिक मत और वेद-विरोधी मत दोनों वैदिक धर्म की ईंट से ईंट बजाने हेतु आये दिन कोई न कोई नये प्रकार का प्रपंच चलाये रहते हैं, जिनमे रूपये के लालच में बिके हुए अहिंदुओं का भी उल्लेख आवश्यक है, जैसे सतलोक आश्रम का कबीर-पंथी गुरु रामलाल जो पिछले दिनों जाकिर नाईक से पैसा खाकर हिन्दू विश्वास को चोट पहुंचाने के लक्ष्य में असफल हो हुआ, जिसमे कि एक बहुत बड़ा हाथ है पंडित महेंद्र पाल आर्य जी का l

आज यदि कुल मिलाकर देखा जाए तो पंडित महेंद्र पाल आर्य जैसे लोग ही बहुत कम मिलेंगे आपको जो सनातन धर्म के शत्रुओं को उनके कुतर्कों का वैदिक धर्म के वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर उन्हें हरा सकें l
क्या सारा जीवन कीर्तन करने वाला प्राणी कभी जाकिर नाईक के कुचक्रों का उत्तर दे सकता है ?
वर्तमान में जाकिर नाईक जैसे लोगों के पास अपना TV Channel भी है, और अरब देशों से जो वित्तीय सहायता प्राप्त होती है वो भी किसी से छुपी हुई नही है l

अब जाकिर नाईक के रिसर्च सेंटर में हजारों मुस्लमानों की भर्ती की जा रही है, जो कि जाकिर नाईक के कुचक्रों को लोगों के बीच फैलाने का कार्य सड़क पर उतर कर करने वाले हैं, मन्दिर में कीर्तन, हवन आदि करने वालों को वे दिग-भ्रमित करने उतरने वाले हैं l
ये सब होगा आने वाले कानून “अंध-श्रद्धा निर्मूलन कानून” के अंतर्गत ...

अब अखिल भारत हिन्दू युवक सभा द्वारा ऐसे “वैदिक - ज्ञानोदय” कार्यक्रम के माध्यम से युवकों को चुन चुन कर तैयार किया जायेगा...
जिसमे वैदिक ज्ञान, वैदिक मत, वैदिक सिद्धांत, वैदिक साहित्यों, दर्शनों, समस्त श्रुतियों-स्मृतियों आदि का ज्ञान दिया जायेगा, उसके उपरान्त समस्त अवैदिक और वेद-विरोधी पुस्तकों का भी तुलनात्मक अध्ययन करवाया जायेगा l

अंत में मुख्य रूप से इसमें सभी युवकों को गैर-हिन्दुओं के शुद्धि-करण की विधि भी सिखाई जाएगी, जिसके माध्यम से किसी भी पैशाचिक सम्प्रदाय के अंतर्गत पैशाचिक जीवन जीने वाले किसी भी अहिंदू को आप कभी भी – कहीं भी शुद्धिकरण करके एक विशुद्ध मनुष्य जीवन जीने का अवसर प्रदान कर सकते हैं l

अज्ञानता के चलते हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाते ना ही आकलन कर पाते हैं कि क्या सही है और क्या गलत ...
सही अर्थों में कहा जाए तो जिस व्यक्ति को धर्म-सत्य-नीति का वास्तविक ज्ञान ही न हो, वो अधर्म असत्य अनीति का विरोध किस प्रकार कर पायेगा ?

इस पवित्र कार्य में सहयोगी बनने वाले समस्त सनातनी भाइयों का हार्दिक स्वागत है, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक कार्यक्रमों में सक्रीय रूप से भाग लेकर जाकिर नाईक जैसे लोगों के कुचक्रों से सनातन धर्मियों को बचाने हेतु आगे आयें l


हिन्दू महासभा प्रचंड हो, भारत देश अखंड हो

ॐ सर्वोपरि सर्वगुण संपन्न सनातन धर्मं

|| सनातनधर्मः महत्मो विश्व्धर्मः ||

..."विश्व महाशक्ति बनना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और हम इस पद को लेकर रहेंगे ।"

जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐ



Friday 4 October 2013

धर्म-परायण महावीर गोकुला जाट की शौर्यगाथा

धर्म का मर्म समझने और संरक्षण करने वाले क्षत्रियों का तो अब घोर अकाल प्रतीत होता है, आर्यभूमि की इस महान क्षत्रिय परम्परा को, जिसके शौर्य के आगे आर्य भूमि के अंदर कोई घुसने का साहस न करता था आज उसके घर के अंदर घुस कर विधर्मी न जाने क्या क्या कर डालते हैं ?
क्यूंकि जिस क्षत्रिय परम्परा के शौर्य और वीरता से पूरा विश्व थर थर काँपता था, जिसकी कीर्ति दोपहर के सूर्य के सामान तीव्रतम तेज थी, उसी क्षत्रिय वंश को दंतहीन करने का कार्य कभी अशोक जैसे धर्म-बदलू वर्ण-संकर ने किया तो कभी मुसलमानों ने और फिर अंग्रेजों ने, वर्तमान में उसे नेहरूवादी हिंदुत्व के ठेकेदार आगे बढ़ा रहे हैं l

पृथ्वीराज चौहान
, महाराज शिवाजी, महाराणा प्रताप की शूरवीरता से तो आप सब परिचित ही हैं परन्तु इनके अलावा और ऐसे असंख्य महावीर शूरवीर हैं, जिन्होंने सनातन धर्म की रक्षार्थ अपने शौर्य और पराक्रम से जन जन को प्रेरित किये रखा, जिनके बारे में हमे पढ़ाया नही गया l

ऐसे ही एक महान शूरवीर गोकुल सिंह जिसे इतिहासकार
गोकुलामहान के नाम से परिचित करवाते हैं, आज उनकी शूरवीरता से आपको परिचित करवा रहा हूँ l

आगे आपको निम्नलिखित शूरवीरों के जीवन से भी परिचित करवाऊंगा:

मगध का पुष्यमित्र शुंग जिसने पुन: वैदिक धर्म की स्थापना की
,
स्कन्दगुप्त और समुद्रगुप्त जिन्होंने वैदिक धर्म की स्थापना के साथ साथ इस ऋषि भूमि आर्यावर्त को स्वर्ण-देश बनाया
,
गौड़ प्रदेश का शशांक शेखर जिसने एक ही रात में भारत भूमि से वेद-विरोधी सम्प्रदायों को भगाया तथा लाखों हिन्दुओं की पुन: शुद्धि की
,
दक्षिण के राष्ट्रकूट हों जिन्होंने वैदिक धर्म की कीर्ति चीन तक पहुंचाई
,
गुर्जरात (गुजरात) के गुर्जर प्रतिहार राजा जिन्होंने गजनवी को कई बार भगाया
l
राजा भोज जिन्होंने महमूद गजनवी को कई बार भागने पर मजबूर किया
l
विजयनगर के हुक्का बुक्का और उसके वंशज महाराजा कृष्ण देव राय जिन्हें त्रिस्मुद्राधिपति की उपाधि दी गई और उनके राज्य में कोई मुस्लमान कभी घुस न पाया
l
उड़ीसा का कपिलेन्द्र जिसने उडीसा से मुसलमान काटने आरम्भ किये तो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा तक दौड़ा दौड़ा कर काटे
l
राजपूतों की आन बाप्पा रावल जिन्होंने बग़दाद तक जाकर मुसलमानों में कोहराम मचाया
l
अफगानिस्तान के जाबुल राज्य के भीमपाल
, अनंगपाल, त्रिलोचनपाल का शौर्य जिन्होंने लगभग 300 वर्षों तक अरबों को भारत से रोके रखा l
राणा सांगा
, राणा कुम्भा का शौर्य l
दिल्ली का आखिरी हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य जिसने 52 युद्ध लगतार जीते
l
वीर छत्रसाल जिसने आततायी औरंगजेब का वध किया
l
असम (असोम) का लचित बड़फुकन जिसके नाम से आज भी असम का बच्चा बच्चा प्रेरणा लेता है
, जिसने ज्वर से पीड़ित गर्म शरीर में भी औरंगजेब की सेनाओं को नाकों चने चबवाए l
वीर दुर्गादास राठोड जिन्होंने औरंगजेब के आगे हार न मानी l
छत्रपति संभाजी जिनके 108 टुकड़े औरंगजेब ने करवाए और नदी के दोनों किनारों पर फेंकवा दिए
, परन्तु उस धर्म-परायण संभाजी ने इस्लाम स्वीकार न किया l
मराठा पेशवा बाजीराव जिसके अंग्रेज और मुस्लमान दोनों जी नतमस्तक हुए
l


भारत का नेपोलियन कहे जाने वाले महान मराठा राजराजेश्वर श्री यशवंतराव होल्कर जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान छेड़ा, परन्तु उस समय के सिख राजाओं ने अंग्रेजों के साथ सन्धि की और अंग्रेजों के धन तथा सेना की सहायता दी, जिसमे लाहोर के सिख राजा रंजीत सिंघ, कपूरथला के सिख राजा फतेह सिंघ, पटियाला का सिख राजा रणधीर सिंघ और जस्सा सिंह भी शामिल थे, इतिहासकार मानते हैं कि यदि यह विश्वासघात और देशद्रोह सिख राजाओं द्वारा यशवंतराव होल्कर के साथ न किया गया होता तो संभवत: अंग्रेजों को 1857 के विद्रोह से पूर्व ही भारत की पवित्र भूमि से खदेड़ दिया गया होता l

तो आज प्रस्तुत है सबसे पहले मथुरा बृज प्रदेश के धर्मपरायण महावीर गोकुला की शौर्यगाथा
l

गोकुल सिंह अथवा गोकुला सिनसिनी गाँव का सरदार था ।


10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने इस्लाम धर्म को बढावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुला ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने बहुत शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुला को बंदी बना लिया गया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने के लिये टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुला के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की।

मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह
मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह  और सम्पादक: डा. दशरथ शर्मा ने स्पष्ट कहा है, राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके । असहिष्णु, धार्मिक, नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ । आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे । शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया  तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया l

इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा की राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था । गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी । जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा ।
आज मथुरा, वृन्दावन के मन्दिर और भारतीय संस्कृति की रक्षा का तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गोकुलसिंह' को है ।

इस बात की चेतना कम ही लोगों को होगी कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान  तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व हुआ था । दिसम्बर १६७५ में तेगबहादुर का वध कराया गया था - दिल्ली की मुग़ल कोतवाली के चबूतरे पर जहाँ आज गुरुद्वारा शीशगंज गुरुद्वारा स्थित है ।

दूसरी ओर, जब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व शहीद हुआ था और उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था, और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता के साथ, एक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था, तो हमें कुछ नजर नहीं आता ।

गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था
,  न कोई पेंशन बंद करदी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापुर्वकसन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी । शर्म आती है कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके । कितना अहसान फ़रामोश कितना कृतघ्न्न है हमारा हिंदू समाज !

नेहरूवादी शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नही किया । तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहासग्रंथ में नहीं है । औरंगजेब को ब्रज के उन जाट योद्धाओं से लड़ने उसे स्वयं जाना पड़ा था । फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और चुने हुए सेनापतियों की कमान में बारम्बार मुग़ल
 सेनायें जाटों के दमन और उत्पीड़न के लिए भेजी जाती रहीं और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रहीं ।

दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया । हमें उनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है । उसी के शब्दों में एक अनोखा चित्र देखिये, जो अन्य किसी देश या जाति के इतिहास में दुर्लभ है:
"उसे इन विद्रोहियों के कारण असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, उसे अनेक बार अपने सेनापतियों को इनके विरुद्ध भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा । विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर किया करते थे । अपनी सुरक्षा के लिए ग्रामीण कंटीले झाडियों में छिप जाते या अपनी कमजोर गढ़ियों में सरण लेते । स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों के पीछे खड़ी हो जातीं । जब पति अपने बंदूक को दाग चुका होता, पत्नी उसके हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक को भरने लगती थी । इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक कि वे युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते थे । जब वे बिल्कुल ही लाचार हो जाते, तो अपनी पत्नियों और पुत्रियों को गरदनें काटने के बाद भूखे शेरों की तरह शत्रु की पंक्तियों पर टूट पड़ते थे और अपनी निश्शंक वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे" ।

औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति
यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं. दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है. वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया.

सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला
, अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी. सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था. गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया, मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए, बस संघर्ष शुरू हो गया l

तभी औरंगजेब का नया फरमान ९ अप्रेल १६६९ आया -
"काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं". फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया
l कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे, और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार l

अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त
मई का महिना आ गया और आ गया अत्याचारी फौजदार का अंत भी l
अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास में ही थे
, अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे, मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी, फौजदार गोली प्रहार से मारा गया, बचे खुचे मुग़ल भाग गए l


गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी, इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं, दिखाई भी क्यों नही देतीं, साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था, मथुरा ही नही, आगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और किले में ढेर हो गए थे l

निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ
, उन्हें दिखाई दिया कि अपराजय मुग़ल-शक्ति के विष-दंत तोड़े जा सकते हैं, उन्हें दिखाई दिया अपनी भावी आशाओं का रखवाला-एक पुनर्स्थापक गोकुलसिंह l

शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा
इसके बाद पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे, मुग़लों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए, क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ चुका था l

अंत में सितंबर मास में
, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि
१. बादशाह उनको क्षमादान देने के लिए तैयार हैं...
२. वे लूटा हुआ सभी सामन लौटा दें...
३. वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे...

गोकुलसिंह ने पूछा मेरा अपराध क्या है, जो मैं बादशाह से क्षमा मांगूगा ?
तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्षमा मांगनी चाहिए, क्योंकि उसने अकारण ही मेरे धर्म का बहुत अपमान किया है, बहुत हानि की है, दूसरे उसके क्षमा दान और मिन्नत का भरोसा इस संसार में कौन करता है?

इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ था, गोकुलसिंह ने कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी, छोड़े भी क्यों भला, गोकुल सिंह धर्म की रक्षार्थ ही तो लड़ रहे थे तो कैसी क्षमा याचना l

औरंगजेब का विचार था कि गोकुलसिंह को भी
'राजा' या 'ठाकुर' का खिताब देकर रिझा लिया जायेगा और मुग़लों का एक और पालतू बढ़ जायेगा, आर्यावर्त को 'दारुल इस्लाम'  बनाने की उसकी सुविचारित योजना निर्विघ्न आगे बढती रहेगी l मगर गोकुलसिंह के आगे उसकी कूट नीति बुरी तरह मात खा गयी, अत: औरंगजेब स्वयं एक बड़ी सेना, तोपों और तोपचियों के साथ, अपने इस अभूतपूर्व प्रतिद्वंदी से निपटने चल पड़ा l
 
परम्पराएं और मर्यादा टूटने का यह एक ऐसा ज्वलंत और प्रेरक उदाहरण है,  जिधर इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया है l


औरंगजेब २८ नवंबर १६६९ को मथुरा पहुँचा
यूरोपीय यात्री मनूची के वृत्तांत के अनुसार अब औरंगजेब को स्वयं गोकुल का सामना करने हेतु जाना पड़ा, जिसका साम्राज्य न सिर्फ़ मुग़लों में ही बल्कि उस समय तक सभी हिंदू-मुस्लिम शासकों में सबसे बड़ा था, यह थी धर्म-परायण वीरवर गोकुलसिंह की महानता l दिल्ली से चलकर औरंगजेब २८ नवंबर १६६९ को मथुरा जा पहुँचा l गोकुलसिंह के अनेक सैनिक और सेनापति जो वेतनभोगी नहीं थे, क्रान्ति भावना से अनुप्राणित लोग थे, रबी की बुवाई के सिलसिले में, पड़ौस के आगरा जनपद में चले गए थे l

औरंगजेब ने अपनी छावनी मथुरा में बनाई और वहां से सम्पूर्ण युद्ध संचालन करने लगा, गोकुलसिंह को चारों ओर से घेरा जा रहा था l औरंगजेब ने एक और सेनापति हसन अली खाँ को एक मजबूत और सुसज्जित सेना के साथ मुरसान की ओर से भेजा l

हसन अली खाँ ने ४ दिसंबर १६६९ की प्रात: काल के समय अचानक छापा मारकर, जाट सेनाओं की तीन गढ़ियाँ - रेवाड़ा, चंद्ररख और सरखरू को घेरलिया. शाही तोपों और बंदूकों की मार के आगे ये छोटी गढ़ियाँ ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो सकीं और बड़ी जल्दी टूट गयी l

हसन अली खाँ की सफलताओं से खुश होकर औरंगजेब ने शफ शिकन खान के स्थान पर उसे मथुरा का फौजदार बना दिया, उसकी सहायता के लिए आगरा परगने से अमानुल्ला खान, मुरादाबाद का फौजदार नामदार खान, आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे, यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हूए आगे बढ़ने लगी l

गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान
, उन आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे, इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश, इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व है l

तिलपत युद्ध दिसंबर १६६९
दिसंबर १६६९ के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से २० मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया, जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण किया, सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा, कोई निर्णय नहीं हो सका l दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया, जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे, मुग़ल सेना, तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त न कर सके l

भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष
, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो, हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था, पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला l

तीसरे दिन, फ़िर भयंकर संग्राम हुआ. इसके बारे में एक इतिहासकार का कहना है कि जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ ही गए थे, परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी. इस सेना ने गोकुलसिंह की विजय को पराजय में बदल दिया l

जाटों के पैर तो उखड़ गए फ़िर भी अपने घरों को नहीं भागे
, उनका गंतव्य बनी तिलपत की गढ़ी जो युद्ध क्षेत्र से बीस मील दूर थी l तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और तीन दिन तक चलता रहा, भारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी इसके आगे टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया l


धर्म-परायण शूरवीर गोकुलसिंह का वध
तिलपत के पतन के बाद गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया, उनके सात हजार साथी भी बंदी हुए, इन सबको आगरा लाया गया l औरंगजेब पहले ही आ चुका था और लाल किले के दीवाने आम में आश्वस्त होकर, विराजमान था, सभी बंदियों को उसके सामने पेश किया गया... औरंगजेब ने कहा -
"जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलो, बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?


अधिसंख्य धर्म-परायण जाटों ने एक सुर में कहा - "बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना l"
अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया, उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर, गोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चला, तो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा,  कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी, परन्तु उस धर्म-परायण महावीर का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था l उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों की और देखने लगा कि दूसरा वार करो, परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे l उन्हें ऐसे ही निर्देश थे, दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे, उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे, अनेकों ने आँखें बंद करली, अनेक रोते हुए भाग निकले l कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी, एक को दूसरे का होश नहीं था. वातावरण में एक ही ध्वनि थी- "हे राम!...हे रहीम !! इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर !



ऐसे असंख्य वीर भारत की इस भूमि पर जन्मे और अपने शौर्य तथा पराक्रम से नए नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं
, संभव हुआ तो सनातन धर्म की रक्षार्थ ऐसे अनेक शूरवीरों और महावीरों की विजयगाथा से परिचित करवाने का प्रयास करूँगा जिनकी धर्म-परायणता ने कभी अधर्म को स्वीकार नही किया, जिनके रण-कौशल से आज भी समस्त संसार प्रेरित होकर अपनी तलवारों की धार तीव्र करके अधर्म, असत्य तथा अनीति को समूल सवंश विनाश हेतु प्रेरित हो सकता है l


हिन्दी साहित्य में गोकुल सिंह
समरवीर गोकुलाः किसान क्रान्ति का काव्य
राजस्थान के सम्मानित एवं पुरष्कृत कविवर श्री बलवीर सिंह करुणअपने गीतिकाव्य और प्रबन्धकाव्य की प्रगतिशील भारतीय जीवन दृष्टि और प्रभावपूर्ण शब्दशिल्प के कारण अब अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हैं। राष्ट्रकवि दिनकर की काव्यचेतना से अनुप्राणित करुण जी नालन्दा की विचार सभा में दिनकर जी के अक्षरपुत्र की उपाधि से अलंकृत हो चुके हैं। इस ओजस्वी और मनस्वी कवि ने समरवीर गोकुलानामक प्रबन्ध काव्य की रचना कर सत्रहवीं सदी के एक उपेक्षित अध्याय को जीवंत कर दिया है। वर्ण-जाति और स्वर्ग-अपवर्ग की चिंता करने वाला यह देश जब तब अपने को भूल जाता है। कोढ में खाज की तरह वामपंथी इतिहासकार और साहित्यकार स्वातन्त्रय संघर्ष के इतिहास के पृष्ठों को हटा देता है। परन्तु प्रगतिशील राष्ट्रीय काव्य धारा ने नयी ऊष्मा एवं नयी ऊर्जा से स्फूर्त होकर अपनी लेखनी थाम ली है। परिणाम है-समरवीर गोकुला। स्मरण रहे कि रीतिकाल के श्रंगारिक वातावरण में भी सर्व श्री गुरु गोविन्द सिंह, लालकवि, भूषण, सूदन और चन्द्रशेखर ने वीर काव्य की रचना की थी। उनकी प्रेरणा भूमि राष्ट्रीय भावना ही थी। आधुनिक युग में बलवीर सिंह करुणने विजय केतुऔर मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँके बाद इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में समर वीर गोकुलाकी भव्य प्रस्तुति की है। यह विजय केतुकी काव्यकला तथा प्रगतिशील इतिहास दृष्टि के उत्कर्ष का प्रमाण है। समरवीर गोकुला सत्रहवीं सदी की किसान क्रान्ति का राष्ट्रीय प्रबन्ध काव्य है।

कवि ने भूमिका में लिखा है- महाराणा प्रताप, महाराणा राज सिंह, छत्रपति शिवाजी, संभाजी महाराज, महावीर गोकुला तथा भरतपुर के जाट शासकों के अलावा ऐसे और अधिक नाम नहीं गिनाये जा सकते जिन्होंने मुगल सत्ता को खुलकर ललकारा हो। वीर गोकुला का नाम इसलिए प्रमुखता से लिया जाए कि दिल्ली की नाक के नीचे उन्होंने हुँकार भरी थी और 20 हजार कृषक सैनिकों की फौज खडी कर दी थी जो अवैतनिक, अप्रशिक्षित और घरेलू अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। यह बात विस्तार के लिए न भूलकर राष्ट्र की रक्षा हेतु प्राणार्पण करने आये थे।

श्यामनारायण पाण्डेय रचित हल्दीघाटी’, पं. मोहनलाल महतो वियोगीप्रणीत आर्यावर्त्त’, प्रभातकृत राष्ट्रपुरुषऔर श्रीकृष्ण सरलके प्रबन्ध काव्य की चर्चा बन्द है। निराला रचित तुलसीदासऔर शिवाजी का पत्र’-दोनों रचनाएँ उपेक्षित हैं। दिनकर और नेपाली के काव्य विस्मृत किये जा रहे हैं। तथापि काव्य में प्रगतिशील भारतीय जीवन दृष्टि की रचनाएँ नयी चेतना के साथ आने लगती हैं। प्रमाण है-समरवीर गोकुलाकी प्रशंसित प्रस्तुति। इस काव्य की महत्प्रेरणा ऐसी रही कि यह मात्र चालीस दिनों में लिखा गया। इसका महदुद्देश्य ऐसा कि भारतीय इतिहास का एक संघर्षशील अध्याय काव्यरूप धारण कर काव्यजगत् में ध्यान आकृष्ट करने लगा। मध्यकालीन शौर्य एवं वीरगति को प्राप्त होने की भावना राष्ट्रीय संचेतना से संजीवित होकर प्रबन्धकाव्य में गूँजने लगी। उपेक्षित जाट किसान का तेजोमय समर्पित व्यक्तित्व अपने तेज से दमक उठा। इतिहास में दमित नरनाहर गोकुल का चरित्र छन्दों में सबके समक्ष आ गया।

आठ सर्गों का यह प्रबन्धकाव्य इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक का महत्त्वपूर्ण अवदान है। कवि ने मथुरा के किसान कुल में जनमे गोकुल के संघर्ष की उपेक्षा की पीडा को सहा है। उस पीडा ने राष्ट्रीय सन्दर्भ में उपेक्षित को काव्यांजलि देने का प्रयास किया है। आदि कवि की करुणा का स्मरण करें फिर कवि करुणकी पीडा की प्रेरणा का महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा। इसीलिए कवि ने प्रथम सत्र में गोकुल के किसान व्यक्तित्व को मुगल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया है। उच्चकुल के नायकत्व के निकष को गोकुल ने बदल दिया था। अतः किसान-मजदूर-दलित के उत्थान के युग में गोकुल की उपेक्षा कब तक होती! उसने तो किसान जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए आमरण संघर्ष किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। विदेशी मुगल शासन द्वारा किसान दमन के विरोध का संकल्प किया। इसलिए कवि ने प्रथम सर्ग में लिखा है-
पर गोकुल तो था भूमिपुत्र
धरती को माँ कहने वाला
अधनंगा तन, अधभरा पेट
हर शीत, घाम सहने वाला!

कवि ने महसूस किया है कि तिलपत का गोकुल शहंशाह औरंगजेब के लिए चिंता का कारण बन गया था। परन्तु अपनों ने क्या किया? -
इतिहास रचे हैं जाटों ने
लेकिन कलमों ने मौन गहे

कवि ने दूसरे सर्ग में युग की विषम स्थितियों और भारतीय आशावाद को ऐतिहासिक और प्राकृतिक सन्दर्भ में अपनी काव्यकला द्वारा चित्रित कर दिया है। प्रकृति का समय चक्र आशा जगाता है -
मावस की छाती पर चढकर
पूनम को आना पडता है
उषा को नभ में गैरिक ध्वज
नित ही फहराना पडता है।

भारतीय दृष्टि की मानवीय जिजीविषा तथा आशा के मनोहर रूप देखें -
पलता रहता है एक बीज घनघोर प्रलय के बीच कहीं,
कोई मनु उसे सहेज सदा रचता आया है सृष्टि नई।

ब्रजमंडल में ही नायक गोकुल का जन्म हुआ। यही आशावाद का आधार बना। तीसरा सर्ग गोकुल के किसान जीवन की चित्रावली है-बिंबों एवं चित्रों में। किसान जीवन का ऐसा वर्णन-चित्रण अन्यत्र विरल है। कवि की अनुभूत किसानी अपनी संवेदना एवं श्रमोत्फुल्ल मस्ती के साथ प्रस्तुत हुई है। फलतः यह किसान जीवन का प्रबन्ध काव्य बन गया है। पर मुगल शासन में किसान अपना पेट भर नहीं पाता था। कराधान भयावह था। जजिया तो काफिर किसान के लिये भयानक दंडस्वरूप आरोपित था। अतः पीडा गहराती जाती थी। परन्तु कवि मुगल शासन के कठोरक्रूर शासन का मर्मान्तक वर्णन नहीं कर सका है। प्रत्यक्ष अत्याचार से रोष-आक्रोश और विद्रोह का वर्णन स्वाभाविक रूप में चौथे सर्ग में किया है। यह सर्ग क्रांतिचेतना और संघर्ष के संकल्प का बन गया है।
धीरे-धीरे लगा जगाने स्वाभिमान की पानी,
कर से कर इन्कार बगावत कर देने की ठानी।

वे अपने गौरव की याद कर सिंह के समान गरजने लगे। कवि की राष्ट्रीय चेतना केवल मथुरा और जाट किसान की बात नहीं करती। वह तो हिन्दुस्तान के लोहू का स्मरण रखता है। तभी तो दिल्ली का तख्त सहम उठा। उधर बीस हजार किसान संगठित होकर तख्त के खिलाफ खडे हो गये। कवि की लेखनी की प्रगतिशील दृष्टि देखें-

वे सचमुच में थे जनसैनिक वे सचमुच में थे सर्वहार,
वे वानर सेना के प्रतीक गोकुला वीर रामावतार।

संस्कृति से जुडकर जनचेतना जागृत होती है। मुगल अत्याचार के विरुद्ध गोकुल का जयकार होने लगा। संघर्ष आरम्भ हो गया। कवि ने आगे की तीन सर्गों में गोकुल और उसकी किसान क्रांति सेना के स्वातंत्रय संग्राम का प्रामाणिक वर्णन किया है। राष्ट्रीय दृष्टि से मुगल हुकूमत के दमनकारी रूप, किसानों का आक्रोश और संकलित संघर्ष के शौर्य का वर्णन इस युद्ध की विशेषताएँ हैं। कवि ने सत्रहवीं सदी की किसान सेना के संग्राम को इक्कीसवीं सदी में दिखाकर एक नयी राष्ट्रीय चेतना स्फूर्त कर दी है। यह उपेक्षित अध्याय धूल झाडकर अपने तेजस्वी रूप को दिखाकर अनुप्राणित कर रहा है।
कवि करुण ने पाँचवें तथा छठे सर्ग में सादाबाद और तिलपत के भीषण संघर्ष को अपनी चिरपरिचित वर्णन शैली में तथा बिम्बपूर्ण शिल्प से प्रत्यक्ष कर दिया है। नायक गोकुल काव्य का व्यक्तित्व ही ऐसा है-
भूडोल बवंडर ने मिलजुल जिसका व्यक्तित्व बनाया हो,
बिजलियों-आँधियों ने मिलकर जिसको दिन-रात सजाया हो।

ऐसे शौर्यशीर्ष गोकुल ने मुगल छावनी सादाबाद पर अधिकार करके मुगलों को हतप्रभ कर दिया था। पर इतिहासकारों ने उपेक्षा कर दी। अतः कवि ने लिख दिया है-
वे टुकडखोर इतिहासकार वे सत्ता के बदनुमा दाग
भारत की संस्कृति के द्रोही निशिदिन गाते विषभरे राग,

ये इतिहासकार मुगलों के विदेशी अत्याचारी रूप पर मौन ही रहते हैं। पर कवि बलवीर सिंह ने गोकुल के शौर्य से घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कर दिया है -
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी धमनी धमीन में दर्द बढा।

उसका सिंहासन डोल उठा। साम्राज्य का भूगोल सिमटता गया। इसलिए खुद औरंगजेब सन् 1669 में बडी फौज लेकर आ धमका। गोकुल के केन्द्र तिलपत में भीषण संग्राम होने लगा। उस युद्ध का एक चित्र देखें -
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा लप-लप लेती फटका निकली।

यृद्ध चलता रहा। मुगल फौज की ताकत बढती गयी। तिलपत पर दबाव बढता रहा। अन्तिम क्षण तक गोकुल अपने चाचा उदय सिंह के साथ युद्ध करता रहा। पराजय नियति बन गयी। कैद होकर औरंगजेब के सामने लाया गया। उसने निर्भीक भाव से अत्याचारी शहंशाह के प्रति अपनी घोर घृणा व्यक्त कर दी। सप्तम सर्ग प्रमाण है। औरंगजेब इस तेजस्वी किसान नायक को देख दंग रह गया। उसने मौत की सजा सुना दी। विकल्प धर्मान्तरण रहा।
अष्टम सर्ग- अन्तिम सर्ग प्रबन्धकाव्य का उत्कर्ष है। कवि ने स्वातंत्रय-संग्राम के कारण घोषित प्राणदंड की भूमिका के रूप में प्रकृति, प्रकृति की रहस्यचेतना तथा भारतीय चिंतन के अनुसार आत्मा की अमरता का आख्यान सुनाया है। 

कवि कहता है-
तुम तो एक जन्म लेकर बस
एक बार मरते हो
और कयामत तक कर्ब्रों में
इन्तजार करते हो
लेकिन हम तो सदा अमर हैं
आत्मा नहीं मरेगी
केवल अपने देह-वसन ये
बार-बार बदलेगी।

अतः धर्म-परायण गोकुल अपने धर्म का परित्याग नहीं करेगा। वे दोनों दंडित होकर अमर हो जाना चाहते हैं। इस विषम परिस्थिति-स्वातंत्रयसंग्राम, पराजय और प्राणदंड या धर्मपरिवर्तन में कवि का प्रश्न है, राष्ट्रीय चेतना का प्रश्न है-

निर्णय बडा कठिन था या दुर्भाग्य देश का, या फिर सौभाग्यों का दिन था....
पर उदयसिंह और गोकुल की शहादत पर कवि की उदात्त भावना मुखरित हो गयी है-
ये सब उज्ज्वल तारे बन कर
जा बैठे अम्बर पर....
सदियों से दृष्टियाँ गडाये
इस भू के कण-कण पर

स्मरण है कि सन् 1670 के संघर्ष एवं शहादत के बाद सतनामियों ने शहादत दी है। शिवाजी का संघर्ष 1674 में सफल हुआ था। पर भरतपुर के सूरजमल ने स्वातंत्रय ध्वज को फहरा दिया। शायद इसी संघर्ष-श्रंखला का परिणाम रहा सन् 1947 का पन्द्रह अगस्त। इतिहास को इस संघर्ष-श्रंखला को भूलना नहीं है। साहित्यकार तो भूलने नहीं देगा।

बलवीर सिंह करुणका यह प्रबंधकाव्य अपना औचित्य सिद्ध कर रहा है। कवि सत्रहवीं सदी के साथ इक्कीसवीं सदी की राष्ट्रीयचेतना से अनुप्राणित है। अतः इसका मूल्य बढ जाता है। यह प्रबन्धकाव्य हिन्दी काव्य की उपलब्धि है। कवि की लेखनी का अभिनन्दन है।

जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐ